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Saturday 27 September 2014

(8) आग !(ख) बड़वानल (जल की आग) (iii) ‘मन’ की ‘आग’ !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                           

‘गंगाजल’ से ‘शीतल’ दिखते, इनके ‘मन’ में ‘आग’ भरी !

‘कृमि’ से खाये ‘फल’ सी, ऊपर सुन्दर  भीतर ‘दाग’ भरी !!

जीते हैं ये लोग ज़िंदगी, होती कुछ, पर दिखती कुछ-

किसी ‘शिकारी’ की ‘वीणा’ से, घातक ‘छल के राग’ भरी !!

‘सागर का पानी’ होता है, ‘खारा-मलिन-कुरंग’ मगर-

उसकी ‘लहरें’ कितनी सुन्दर, होतीं ‘उजले दाग’-भरी !!

                         
           
                           

‘तृष्णा’ ने है ‘लोभ’ का शायद, कुछ इस ढंग से किया ‘वरण’-

छोड़, ‘सिन्धौरे’ का ‘सेंदुर’, पिघले ‘कंचन’ से ‘माँग’ भरी !!

‘मदिरा-चरस’ आदि के ‘मद’ में, डूबे रहते लोग कई-

लेकिन ‘प्रवचन’ में कहते हैं, ‘वाणी’ सदा ‘विराग-भरी’ !!

सदा सोचते रहते पायें, किससे कितनी ‘धन-दौलत’-

पर सबसे कहते हैं, ’बच्चा ! जियो ‘ज़िंदगी त्याग-भरी’ !!

                                           

‘बाग’ के सारे ‘फल’ खाकर भी, नहीं अघाते हैं देखो !

इन ‘तोतों’ की ‘रटी-रटाई बातें’ हैं ‘अनुराग-भरी’ !!

‘बड़वानल’ सी ‘क्षणिक उजाला’ करती है माना ‘बिजली’-

‘बादल’ से ‘धुँधली’ हो जातीं, ‘रातें चाँद-चिराग’-भरी !!

’कुटिल कामना’ ‘ठगिनी’ की ‘झोली’में “प्रसून” भरे हुए-

इनकी ‘महक’ की ‘आड़’ लिये है, ‘झोली छल की’ ‘नाग-भरी’ !!      

3 comments:

  1. सार्थक सुन्दर मनोहारी लेखन अपने वक्त के व्यंग्य विडंबन और झरबेरियों की चुभन लिए ग़ज़ल के अंदाज़ में।

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