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Saturday 5 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (1) प्रणाम (ख) प्रियतमा प्रणाम(iii) तू 'प्रियतम' की अनुकृति प्रिया |


(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

 


तू 'प्रियतम' की अनुकृति प्रिया |

है नमन तुझे हे प्रकृति प्रिया !!

जड़ चेतन का पोषण करके -

सुख देना तेरी नियति प्रिया ||


जब ब्रह्म ने सारी सृष्टि रची -

तूने भर दी ‘गति-प्रग़ति’ प्रिया ||


प्राणों में भर ‘चेतना’ तुही -

मन को देती है ‘सु-मति’ प्रिया ||

संचालिका तुही जीवन की है-

                        आभारी तव 'संसृति', प्रिया ||       तव=तुम्हारी 

होतीं जब कुपित 'विकृति' बनतीं

हो प्रसन्न बनतीं 'सुकृति' प्रिया ||

 
‘जल,थल,नभ’, दसों दिशाओं में -

कण- कण में ततू ही लसित प्रिया ||

उत्पत्ति के 'काम'-"प्रसून" की तू–
रूपसी अनिन्द्या 'रति'-प्रिया ||



2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-07-2014) को "मैं भी जागा, तुम भी जागो" {चर्चामंच - 1666} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. h वाह प्रकृति का प्रेेयसीकरण (मानवीकरण )परकीया प्रेम का महाभाव लिए।

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