Powered by Blogger.

Followers

Saturday 30 June 2012

गज़ल-कुञ्ज -(ब) विष-गंध-(३)भर गयी कितनी तपन!


महकती थीं कभी जिसमें प्रीति की कलियाँ सुमन |

उन बसन्ती हवाओं में भर गयी कितनी तपन !!


कोमलांगी  बेलि,पादप,बल्लरी मुरझा गये -

देख लो,जलने झुलसने लगा है सारा चमन ||

 

ओ रसीली मधुर पूरब की सुखद पुरबाई सुन!

बन न तू तपती हुई लू, जेठ की पछुवा पवन !!

 

ओ शहर,अपने ह्रदय का अब न तुम उगलो ज़हर |

हुआ गंगा और जमुना का विषैला आचमन ||


 

  




निकालो कुछ समय मधुरिम प्रेम के व्यवहार को -

बन गया है वित्त का ही दास मानव चित्त मन ||

    
    

मोगरों, बेला,चमेली में उगे कैक्टस हैं उफ़ ! 

भर गयी है भावनाओं.कामनाओं में चुभन ||

                                                        
     

लग गये पहरे, नहीं आज़ाद है कोंई गली -

मन लगाने के लिये ढूँढ़ें कहाँ उपवन,सु-वन  ??

  

धुआँ,कर्कश ध्वनि,कलुष भय-रव बना छाया हुआ -

बहुत बोझल मलिन हैं ये जल औ थल, नीला गगन ||
   

कौन सी ढूँढ़ें जगह हम, प्यार करने के लिये -

शोर में डूबे हुये हैं झील, झरने औ पुलिन ||

   

मृदुलतायें स्नेह की हो विवश मुर्झाईं "प्रसून"  

रोटी-रोजी से थके-मांदे हुये सजनी, सजन ||
 

Friday 29 June 2012

गज़ल-कुञ्ज -(ब) विष-गन्ध-(2)- (दीप हम ऐसे जलायें)



अन्धेरे में मुस्कराएं,खिलखिलायें |

आओ मिल कर दीप हम ऐसे जलायें ||



बन गया है शहर काजल कोठरी अब -

दाग काले,ह्रदय के कितने दिखायें ||

 

     
भूल कर उद्देश्य मानव-उन्नयन का -
स्वर्ण में उलझी हैं सारी संस्थायें ||
    
दृष्टिकोणों में न व्यापकता अभी तक -
बहुत उथली खोखली हैं भावनायें ||

     

तजो दक्षिण,और उत्तर, पूर्व,पश्चिम -

भेद से बन्धतीं कभी क्या ये दिशायें ||



राग अपना अलग मत देखो अलापो-

साथ मिल कर एकता के गीत गायें ||



'वित्त, कंचन,में सभी गुण' यह कहावत-

रूढ़ी है,इससे वतन को हम बचायें ||

  

तोड़ दें मैली कुचैली जंग वाली -

लौह की जंजीर -बेदी सी प्रथायें ||

    


रीतियाँ कुछ शुष्क काँटों सी नुकीली -

"प्रसून" मिल कर होलियाँ इनकी जलायें ||


 




About This Blog

  © Blogger template Shush by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP